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16 August, 2011

यह जितना दृश्यमान जगत है, यह माया है. यह पाँच तत्वों का बना हुआ 


है. हमारा शरीर भी इन्ही पाँच तत्वों का बना है. इसलिए शरीर और माया 


का गहरा सम्बन्ध है. जो इन्सान अपने आपको शरीर समझ बैठता है, 


वह माया से जुड़ जाता है. ब्रह्मज्ञानी को चूंकि पता होता है की "मैं


शरीर नहीं हूँ, इसलिए वह पाँच भौतिक माया में लिप्त नहीं होता, 


निर्लिप्त रहता है. वह जानता है की यह सारा जगत निरंकार-दातार ने मेरे 


लिए बनाया है, मुझे जगत के लिए नहीं बनाया, जैसे मकान रहने वाले 


के लिए होता है, रहने वाला मकान के लिए नहीं होता. यदि रहने वाला 


खुद को मकान ही समझ बैठे तो सामान की टूट-फूट से अवश्य परेशान 


होगा. इसके उलट जो यह जानता है की मैं मकान में रहने वाला हूँ, वह 


मकान की टूट-फूट से निराश नहीं होता. जरूरत पड़े तो उसे ठीक करवा 


लेता है. अगर मकान बहुत खराब हो जाये तो उसे छोड़ देता है. मकान 


को वह रहने का साधन मात्र मानता है, उसके टूटने से अपने आपको टूटा 


हुआ नहीं समझता. उसका उस मकान से सम्बन्ध तो होता है लेकिन 


मोह नहीं होता. इसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी संसार से सम्बन्ध रखता है, 


परोपकार के काम भी करता है, लेकिन वह इसके मोह में नहीं फंसता. 


जो अपने निज स्वरुप को जान लेता है, निरंकार-दातार को जान लेता है, 


वह माया में रहते हुए भी माया से निर्लिप्त रहता है.   


    ******सतगुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज, बुक : गुरुदेव हरदेव






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