*आ. महापुरुषों,*
*धन निरंकार जी…!*
*'माया' क्या है ?
*और…*
*'माया' किसे कहते है ?*
*सर्वप्रथम दास यह स्पष्ट करना चाहूंगा की, यदि कोई इस माया को केवल धन (रूपये-पैसे) के रूप में ही मान लेता है, तो यह उसकी सबसे बडी भूल है |*
*यह सारा संसार दृष्टिगोचर है | अपने चर्मचक्षु से दिखाई देता है | किन्तू यह सारा संसार नाशवान, नश्वर है | एक ना इक दिन इसका अन्त होना निश्चित है | जो परिवर्तनशील, अनित्य, आने-जाने वाला है | यह केवल आभासमात्र है | जो कुछ भी यह नजर आता है, यह सारी 'माया' है | 'माया' रज, तम और सत्व इन तीन गुणों से युक्त होती है |*
*यह 'माया' प्रभु परमात्मा की बहिरंगा शक्ति है | जो प्रभु परमात्मा की शक्ति होकर भी ब्रम्ह से सदैव पृथक रहती है |*
*यह माया जड होने के कारण इसे प्रभु की निकृष्ट शक्ति माना गया है | माया और ब्रम्ह परस्पर विरोधी तत्व है | इसलिये, ब्रम्ह और माया एक जगह एक साथ नहीं रह सकते |*
*सुरज, चांद, सितारे, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, जीव और आकाश इन नौ वस्तु से बने इस (प्रकृति) संसार को ही 'माया' ही कहते है | माया को ही अज्ञान और अहंकार भी कहा है |*
*जहां अहंकार है, निरंकार नहीं |"*
*माया को मिथ्या, असत्य कहा गया है |*
*जो जीव को हरदम अपनी ओर आकर्षित करती रहती है | जो सच को झूठ, और झूठ को सच का आभास कराती है | जो समस्त दु:खों की जननी है |*
*सतगुरु बाबाजी ने इस पद में जीव को माया के विषय को समझाने का प्रयास किया है…*
*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र.10.*
*"निलगगन में देखो प्राणी*
*सुरज चांद सितारें हैं |*
*अस्थाई है चमक दमक सब*
*मिट जानें यह सारें हैं |*
*नीचे धरती अग्नि जल हैं*
*इन सबका विस्तार बडा |*
*नाशवान हैं ये भी जग में*
*नश्वर यह संसार खडा |*
*मध्य जीव आकाश अरु वायु*
*इन तीनों का सूक्ष्म रूप |*
*इक दिन यह भी मिट जाएगा*
*तीनों का जो जुडा स्वरूप |*
*ये नौ वस्तु दृश्यमान हैं*
*जिसको कहते 'माया' है |*
*हुजुर सतगुरु बाबाजी ने उपरोक्त पद में समझाया है, की सुरज, चांद, सितारे, जल, अग्नि, धरती, वायु, जीव और आकाश यह नौ वस्तु नाशवान है | जिसको 'माया' कहते है |*
*आगे और भी विस्तार में बताया है…*
*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 85.*
*"बीत चुकी पर मन ललचाना*
*यह भी तो इक माया है |*
*भावी स्वप्नों में खो जाना*
*यह भी तो इक माया है |*
*इसलिये, सतगुरु बाबाजी बार बार हमें इस प्रभु से जुडने के लिये वर्तमान समय के सतगुरु के चरणों से जुडें रहने का सुझाव तथा उपदेश देते आ रहें है | तथा इस ठगीनी विषधर माया से बचने के लिये सदैव "वर्तमान में जीने" का संदेश देते रहें |*
*निरंकार को भूल के धन पर*
*आस लगाना माया है |*
*दिखलावे की प्रीत जता कर*
*मान बढाना माया है |*
*मोह वश हो के संत सेवा से*
*जी चुराना माया है |*
*ऋद्धि सिद्धि करामात हित*
*धुनि रमाना माया है |*
*ब्रम्हज्ञान बिन जितना भी है*
*पीना खाना माया है |*
*तीन गुणों का जितना भी है*
*ताना बाना माया है |*
*वरत नियम सुच संयम पूजा*
*दान कमाना माया है |*
*इस माया से मुक्ति हेतु*
*कर्म कमाना माया है |*
*मनमर्जी से जो भी करते*
*बिन माया कुछ और नहीं |*
*कहे 'अवतार' गुरु यदि बख्शे*
*माया का कोई जोर नहीं |*
*शहंशाह बाबा अवतार सिंह जी महाराज ने फरमाया, ब्रम्ह के बिन जो कुछ भी नजर आ रहा है, तीन गुणों से युक्त है, यह सब माया है | अन्त में अपना फैसला सुनातें हुए कहा है, यह जीव अपने मनमाने ढंग अर्थात मनमर्जी से जो कुछ भी कर्म (आचरण) करता है, यह सब 'माया' है |*
*इतना ही नहीं बल्कि इस माया से छुटकारा पाने हेतु दान-पुण्य, वैदिक कर्म-काण्ड करना, इस को भी तो 'माया' ही बतलाया है | इसलिये, हमें अपने मन-बुद्धि से कोई भी मनमाना आचरण, कर्म नहीं करना चाहिए | केवल गुरुमत को अपनाने की सलाह सन्त-महापुरुष देतें है |*
*गुरुमत को अपनाने से ही इस मायाबद्ध जीव की कर्म के बंधन से मुक्तता होती है | और यह माया जो जीव पर हावि हो चुकी है, जीव की दासी बनने में सहाय्यक होती है |*
*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 51.*
*रंग बिरंगी माया जग की*
*जो तेरे मन भाती है |*
*पक्की बात समझ ले प्राणी*
*यह आती और जाती है |*
*जो कुछ भी यह नजर आ रहा*
*आने जाने वाला है |*
*अन्धबुद्धि व मुरख मानव*
*जो इसका मतवाला है |*
*नाशवान से प्रीत लगा के*
*अन्त में रोना पडता है |*
*हाथ व पल्ले कुछ नहीं पडता*
*सबकुछ खोना पडता है |*
*माया के वशीभुत होकर यह जीव अपने मुल प्रभु परमात्मा से जुदा हो चुका है | माया में आसक्त होकर प्रभु परमात्मा से विरक्त हुआ है | तथा माया के सन्मुख होकर प्रभु से विमुख हो चुका है | इस माया के अधीन होकर अपनी दुर्दशा का कारण बन चुका है | इसलिये, अनादि काल से यह मायाबद्ध जीव दु:ख, कष्ट और पीडा भोग रहा है |*
*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 84.*
*जो जाने माया का स्वामी*
*उसकी माया दासी है |*
*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 241.*
*उसके काम करें यह माया*
*जो सतगुरु को भाता है |*
*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 261.*
*जग की माया निज सेवक को*
*अपने हाथ दिखाती है |*
*बच्चें को दे जन्म सर्पिणी*
*आप ही क्यों खा जाती है |*
*दु:ख पडने पर माया राणी*
*सेवक को ही लेती खा |*
*ज्यों बन्दरिया अपने बच्चे*
*निज पग नीचे लेत दबा |*
*पर भक्तों से मायारानी*
*सदा सर्वदा डरती है |*
कहे 'अवतार' गुरु के जन का
माया पानी भरती है |
यह जीव मायाधीन है और ब्रम्ह मायाधीश है | तथा यह ब्रम्ह 'माया और जीव' का स्वामी है | यह माया केवल हरि और हरि के जन (भक्त) इनसें डरती है | और इनसें कोसों दूर रहती है | इस ब्रम्ह को अपनाकर ही यह जीव अपना पार उतारा कर सकता है | इसके लिये हमें गुरु का प्यारा सेवक बन कर तथा सदैव गुरु की आज्ञा में रहकर गुरु को रिझाना होगा | एवं गुरु व हरि की समान रूप से भक्ति करके प्रभु पाकर इस माया से उत्तीर्ण हो सकते है | इसलिये, एक 'भक्त' की अवस्था को प्राप्त करना होगा |
त्रूटीयों को बख्श लेना जी…!
धन निरंकार जी…!
-नितिन खाडे,
कल्याण.