Search This Blog

24 March, 2017

जिस तरह लोग मुर्दे इंसान को कंधा देना पुण्य समझते हैं
काश इस तरह ज़िन्दा इंसान को सहारा देंना पुण्य समझने लगे तो ज़िन्दगी आसान हो जायेगी॥

तू मेहरबान

सारे जगत को देने वाले
      मैं क्या तुझको भेंट चढ़ाऊँ !

जिसके नाम से आए खुशबू
      मै क्या उसको फूल चढ़ाऊँ !!.

वो तैरते तैरते डूब गये,
       जिन्हे खुद पर गुमान था !

और वो डूबते डूबते भी तर गये..
        जिन पर तू मेहरबान था !!

20 March, 2017

माया' क्या है ?

*आ. महापुरुषों,*
*धन निरंकार जी…!*

*'माया' क्या है ?
*और…*
*'माया' किसे कहते है ?*

*सर्वप्रथम दास यह स्पष्ट करना चाहूंगा की, यदि कोई इस माया को केवल धन (रूपये-पैसे) के रूप में ही मान लेता है, तो यह उसकी सबसे बडी भूल है |*

*यह सारा संसार दृष्टिगोचर है | अपने चर्मचक्षु से दिखाई देता है | किन्तू यह सारा संसार नाशवान, नश्वर है | एक ना इक दिन इसका अन्त होना निश्चित है | जो परिवर्तनशील, अनित्य, आने-जाने वाला है | यह केवल आभासमात्र है | जो कुछ भी यह नजर आता है, यह सारी 'माया' है | 'माया' रज, तम और सत्व इन तीन गुणों से युक्त होती है |*

*यह 'माया' प्रभु परमात्मा की बहिरंगा शक्ति है | जो प्रभु परमात्मा की शक्ति होकर भी ब्रम्ह से सदैव पृथक रहती है |*

*यह माया जड होने के कारण इसे प्रभु की निकृष्ट शक्ति माना गया है | माया और ब्रम्ह परस्पर विरोधी तत्व है | इसलिये, ब्रम्ह और माया एक जगह एक साथ नहीं रह सकते |*

*सुरज, चांद, सितारे, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, जीव और आकाश इन नौ वस्तु से बने इस (प्रकृति) संसार को ही 'माया' ही कहते है | माया को ही अज्ञान और अहंकार भी कहा है |*

*जहां अहंकार है, निरंकार नहीं |"*

*माया को मिथ्या, असत्य कहा गया है |*

*जो जीव को हरदम अपनी ओर आकर्षित करती रहती है | जो सच को झूठ, और झूठ को सच का आभास कराती है | जो समस्त दु:खों की जननी है |*

*सतगुरु बाबाजी ने इस पद में जीव को माया के विषय को समझाने का प्रयास किया है…*

*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र.10.*

*"निलगगन में देखो प्राणी*
*सुरज चांद सितारें हैं |*

*अस्थाई है चमक दमक सब*
*मिट जानें यह सारें हैं |*

*नीचे धरती अग्नि जल हैं*
*इन सबका विस्तार बडा |*

*नाशवान हैं ये भी जग में*
*नश्वर यह संसार खडा |*

*मध्य जीव आकाश अरु वायु*
*इन तीनों का सूक्ष्म रूप |*

*इक दिन यह भी मिट जाएगा*
*तीनों का जो जुडा स्वरूप |*

*ये नौ वस्तु दृश्यमान हैं*
*जिसको कहते 'माया' है |*

*हुजुर सतगुरु बाबाजी ने उपरोक्त पद में समझाया है, की सुरज, चांद, सितारे, जल, अग्नि, धरती, वायु, जीव और आकाश यह नौ वस्तु नाशवान है | जिसको 'माया' कहते है |*

*आगे और भी विस्तार में बताया है…*

*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 85.*

*"बीत चुकी पर मन ललचाना*
*यह भी तो इक माया है |*

*भावी स्वप्नों में खो जाना*
*यह भी तो इक माया है |*

*इसलिये, सतगुरु बाबाजी बार बार हमें इस प्रभु से जुडने के लिये वर्तमान समय के सतगुरु के चरणों से जुडें रहने का सुझाव तथा उपदेश देते आ रहें है | तथा इस ठगीनी विषधर माया से बचने के लिये सदैव "वर्तमान में जीने" का संदेश देते रहें |*

*निरंकार को भूल के धन पर*
*आस लगाना माया है |*

*दिखलावे की प्रीत जता कर*
*मान बढाना माया है |*

*मोह वश हो के संत सेवा से*
*जी चुराना माया है |*

*ऋद्धि सिद्धि करामात हित*
*धुनि रमाना माया है |*

*ब्रम्हज्ञान बिन जितना भी है*
*पीना खाना माया है |*

*तीन गुणों का जितना भी है*
*ताना बाना माया है |*

*वरत नियम सुच संयम पूजा*
*दान कमाना माया है |*

*इस माया से मुक्ति हेतु*
*कर्म कमाना माया है |*

*मनमर्जी से जो भी करते*
*बिन माया कुछ और नहीं |*

*कहे 'अवतार' गुरु यदि बख्शे*
*माया का कोई जोर नहीं |*

*शहंशाह बाबा अवतार सिंह जी महाराज ने फरमाया, ब्रम्ह के बिन जो कुछ भी नजर आ रहा है, तीन गुणों से युक्त है, यह सब माया है | अन्त में अपना फैसला सुनातें हुए कहा है, यह जीव अपने मनमाने ढंग अर्थात मनमर्जी से जो कुछ भी कर्म (आचरण) करता है, यह सब 'माया' है |*

*इतना ही नहीं बल्कि इस माया से छुटकारा पाने हेतु दान-पुण्य, वैदिक कर्म-काण्ड करना, इस को भी तो 'माया' ही बतलाया है | इसलिये, हमें अपने मन-बुद्धि से कोई भी मनमाना आचरण, कर्म नहीं करना चाहिए | केवल गुरुमत को अपनाने की सलाह सन्त-महापुरुष देतें है |*

*गुरुमत को अपनाने से ही इस मायाबद्ध जीव की कर्म के बंधन से मुक्तता होती है | और यह माया जो जीव पर हावि हो चुकी है, जीव की दासी बनने में सहाय्यक होती है |*

*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 51.*

*रंग बिरंगी माया जग की*
*जो तेरे मन भाती है |*

*पक्की बात समझ ले प्राणी*
*यह आती और जाती है |*

*जो कुछ भी यह नजर आ रहा*
*आने जाने वाला है |*

*अन्धबुद्धि व मुरख मानव*
*जो इसका मतवाला है |*

*नाशवान से प्रीत लगा के*
*अन्त में रोना पडता है |*

*हाथ व पल्ले कुछ नहीं पडता*
*सबकुछ खोना पडता है |*

*माया के वशीभुत होकर यह जीव अपने मुल प्रभु परमात्मा से जुदा हो चुका है | माया में आसक्त होकर प्रभु परमात्मा से विरक्त हुआ है | तथा माया के सन्मुख होकर प्रभु से विमुख हो चुका है | इस माया के अधीन होकर अपनी दुर्दशा का कारण बन चुका है | इसलिये, अनादि काल से यह मायाबद्ध जीव दु:ख, कष्ट और पीडा भोग रहा है |*

*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 84.*

*जो जाने माया का स्वामी*
*उसकी माया दासी है |*

*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 241.*

*उसके काम करें यह माया*
*जो सतगुरु को भाता है |*

*पवित्र अवतार वाणी शब्द क्र. 261.*

*जग की माया निज सेवक को*
*अपने हाथ दिखाती है |*

*बच्चें को दे जन्म सर्पिणी*
*आप ही क्यों खा जाती है |*

*दु:ख पडने पर माया राणी*
*सेवक को ही लेती खा |*

*ज्यों बन्दरिया अपने बच्चे*
*निज पग नीचे लेत दबा |*

*पर भक्तों से मायारानी*
*सदा सर्वदा डरती है |*

कहे 'अवतार' गुरु के जन का
माया पानी भरती है |

यह जीव मायाधीन है और ब्रम्ह मायाधीश है | तथा यह ब्रम्ह 'माया और जीव' का स्वामी है | यह माया केवल हरि और हरि के जन (भक्त) इनसें डरती है | और इनसें कोसों दूर रहती है | इस ब्रम्ह को अपनाकर ही यह जीव अपना पार उतारा कर सकता है | इसके लिये हमें गुरु का प्यारा सेवक बन कर तथा सदैव गुरु की आज्ञा में रहकर गुरु को रिझाना होगा | एवं गुरु व हरि की समान रूप से भक्ति करके प्रभु पाकर इस माया से उत्तीर्ण हो सकते है | इसलिये, एक 'भक्त' की अवस्था को प्राप्त करना होगा |

त्रूटीयों को बख्श लेना जी…!
धन निरंकार जी…!

-नितिन खाडे,
कल्याण.

08 March, 2017

भगवान

  *पाँच तत्व का कोड है भगवान*   
       *जिससे यह ब्रह्माण्ड बना*
        
          *भ + ग + व + आ + न*

    *भूमि (धरती), गगन (आकाश),*
       *वायु (हवा), अग्नि (आग),*
                  *नीर (पानी)*

          *क्या अब भी कोई है*
      *जिसने भगवान को देखा*
          *अथवा जाना नही..?*

*अब अपने अन्दर झांक कर देखो*
       *भगवान नज़र भी आएगा*
         *और महसूस भी होगा*

Teacher vs Guru

A Teacher instructs you, a Guru constructs you. A Teacher sharpens your mind, a Guru opens your mind. A Teacher answers your question, a Gur...