Search This Blog

20 April, 2013

बौद्ध धर्मकल्याण

करणीयमत्व कुमलेन यं तं सन्तं पदं अभिसमेच्च।
सक्को उचू च सूज च सुवचो चस्स मृदु अनतिमानी॥1॥

सतुन्स्सको न सुमरो च अप्पकिच्चो च सल्लहुकवुत्ति।
सन्तिन्द्रियो च निपको च अप्पगब्भो कुलेसु अननुगिद्धो॥2॥

बौद्ध धर्म कहता है कि जो आदमी शांत पद चाहता है, जो कल्याण करने में कुशल है, उसे चाहिए कि वह योग्य और परम सरल बने। उसकी बातें सुंदर, मीठी और नम्रता से भरी हों। उसे संतोषी होना चाहिए। उसका पोषण सहज होना चाहिए। कामों में उसे ज्यादा फँसा नहीं होना चाहिए। उसका जीवन सादा हो। उसकी इंद्रियाँ शांत हों। वह चतुर हो। वह ढीठ न हो। किसी कुल में उसकी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।

न च खुद्द समाचरे किञ्चि येन विञ्चू परे उपवदेय्युं।
सुखिनो वा खेमिनो होन्तु सव्वे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता॥3॥

वह ऐसा कोई छोटे से छोटा काम भी न करे, जिसके लिए दूसरे जानकार लोग उसे दोष दें। उसके मन में ऐसी भावना होनी चाहिए कि सब प्राणी सुखी हों, सबका कल्याण हो, सभी अच्छी तरह रहें।

ये केचि पाणभूतत्थि तसा वा थावरा वा अनबसेसा।
दीघा वा ये महंता वा मज्झिमा रस्सकाऽणुकथूला॥4॥

दिट्ठा वा येव अद्दिट्ठा ये च दूरे वसन्ति अविदूरे।
भूता वा संभवेसी वा सब्बे सत्ता भवन्ति सुखितत्ता॥5॥

जितने भी प्राणी हैं, फिर वे जंगम हों या स्थावर, बड़े हों या छोटे, बहुत महीन हों या स्थूल, दिखाई पड़ते हों या न दिखाई पड़ते हों, दूर हों या निकट, पैदा हुए हों या होने वाले हों, सबके सब सुखी रहें।

न परो परं निकुब्बेथ नातिमञ्ञेथ कत्थचिनं कञ्चि।
व्यारोसना पटिघसञ्ञा नाञ्ञमञ्ञस्स दुक्खमिच्छेय्य॥6॥

कोई किसी को न ठगे। कोई किसी का अपमान न करे। वैर या विरोध से एक-दूसरे के दुःख की इच्छा न करें।

माता यथा नियं पुत्त आयुमा एक पुत्त-मनुरक्खे।
एवऽपि सब्बभूतेसु मानस भावये अपरिमाणं॥7॥

माता जैसे अपनी जान की परवाह न कर अपने इकलौते बेटे की रक्षा करती है, उसी तरह मनुष्य सभी प्राणियों के प्रति असीम प्रेमभाव बढ़ाए।

मेत्त च सब्बलोकस्मिं मानसं भावये अपरिमाणं।
उद्ध अधो च तिरियं च असबाधं अवेर असपत्त॥8॥

बिना बाधा के, बिना वैर या शत्रुता के मनुष्य ऊपर-नीचे, इधर-उधर सारे संसार के प्रति असीम प्रेम बढ़ाए।

तिट्ठं चर निसिन्नो वा सायानो वा यावतस्स विगतमिद्धो।
एतं सतिं अधिट्ठेय्य ब्रह्ममेतं विहारं इधमाहु॥9॥

खड़ा हो चाहे चलता हो, बैठा हो चाहे लेटा हो, जब तक मनुष्य जागता है, तब तक उसे ऐसी ही स्मृति बनाए रखनी चाहिए। इसी का नाम है, ब्रह्म-विहार।

दिट्ठि च अनुपगम्म सीलवा दस्सनेन सपन्नो।
कामेसु विनेय्य गेधं न हि जातु गब्भसेय्यं पुनरेतीति॥10॥

ऐसा मनुष्य किसी मिथ्या दृष्टि में नहीं पड़ता। शीलवान व शुद्ध दर्शनवाला होकर वह काम, तृष्णा का नाश कर डालता है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

Teacher vs Guru

A Teacher instructs you, a Guru constructs you. A Teacher sharpens your mind, a Guru opens your mind. A Teacher answers your question, a Gur...